आनंद बक्षी और दिलीप कुमार का वह सुनहरा पल
जन्म: 21 जुलाई 1930, रावलपिंडी • निधन: 30 मार्च 2002, मुंबई
उस दिन आनंद बक्षी मृत्युशैया पर थे। जीवन की आखिरी लड़ाइयां लड़ते हुए, हृदय और फेफड़ों की बीमारी ने उनका शरीर बहुत थका दिया था। अचानक उनके दरवाज़े पर दस्तक हुई—कोई थे दिलीप साहब। सामने आते ही उन्होंने मुस्कुराकर कहा,
“लाले, कैसा है तू?”
आनंद जी बिस्तर पर लेटे, उठने की जद्दोजहद कर रहे थे। तब दिलीप कुमार ने अपनी सज्जनता दिखाई:
“ओ तू मेरे कोल नी आ सकदा। मैं तेरे कोल आ रहा हूँ।”
जूते उतारकर वे सावधानी से आनंद बक्षी के बिस्तर पर चढ़ गए और उनके पास लेट कर गले से लगा लिया—ऐसा नजारा देख राकेश बक्षी की आँखें नम हो गईं।
दिलीप साहब की इंसानियत का एक और उदाहरण
1965 में “जब-जब फूल खिले” की ब्लॉकबस्टर सफलता पर मुंबई के शन्मुखानंद हॉल में समारोह था। पटकथा और संगीत की चर्चा के बीच, आनंद बक्षी को मंच पर पुष्पगुच्छ नहीं मिला। दिलीप साहब ने ग़ौर किया कि सभी कलाकारों के हाथ गुलदस्ते हैं, पर आनंद जी के पास नहीं। अपना गुलदस्ता थामते हुए दिलीप कुमार बोले:
“तुम इस इंडस्ट्री में नए हो। अगर मेरे हाथ में बुके नहीं है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम्हारे हाथ में बुके होना ज़रूरी है।”
ये सम्मान पाकर आनंद जी भाव विभोर रह गए, और दिलीप साहब के प्रति उनका आदर कई गुना बढ़ गया।
आनंद बक्षी का संक्षिप्त जीवन परिचय
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शुरुआत: रावलपिंडी में जन्म, परिवार 1947 में दिल्ली आकर बसा।
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पहला ब्रेक: 1958 की फिल्म भला आदमी में चार गीत (150 रुपये में!)।
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बड़ा मुकाम: 1965 में जब-जब फूल खिले के लिए लिखे गीतों ने उन्हें रातों-रात ज़ायका दिलाया।
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सफलता: 45 साल, 6000+ गीत, 300+ फ़िल्में; चार फ़िल्मफेयर पुरस्कार
एक नवाब-ए-अदब की विरासत
उनकी कलम ने “बॉबी” से “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे” तक हर युग को गीतों की सौगात दी। आज उनका जन्मदिन मनाते हुए, हम नमन करते हैं उस अभियनंधनीय कवि—आनंद बक्षी को। शत-शत नमन!
और नमन, उस दिलेर कलाकार को—दिलीप कुमार—जो सिनेमा के ट्रैजेडी किंग बने रहते हुए, इंसानियत में नायक साबित हुए।