“एक ही सवारी, दो युवा सितारे और इफ्तार से बचने का मजेदार किस्सा”
1960 के दशक की शुरुआत में कोलाबा की संकरी गलियों में, बॉलीवुड के दो उभरते हुए चेहरे — जितेंद्र और प्रेम चोपड़ा — दिन-रात एक ही मकसद से जुटे रहते थे: फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनानी। दोनों के पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, लेकिन आत्मविश्वास इसका दोगुना था।
साजिश की शुरुआत: एक ही गाड़ी, एक ही बजट
दिन-रात फ़िल्म प्रोड्यूसर्स के ऑफिसों का चक्कर लगाने वाले जतेंद्र और प्रेम चोपड़ा अक्सर एक ही टाइम पर घर से निकलते। एक दिन प्रेम चोपड़ा ने सुझाया,
“यार, एक ही गाड़ी से चलते हैं — पैसे बचेंगे और साथ में मस्ती भी रहेगी।”
यही हुआ: जिस दिन जतेंद्र की गाड़ी होती, वह दोनों का ड्राइवर; जब प्रेम की गाड़ी चलती, दोनों मिलकर पेट भी भरते।
मोहल्ले की लड़की और सीटिंग ड्रामा
एक दिन लगभग दोपहर के वक़्त, प्रेम चोपड़ा की जीप खड़ी थी। सड़क पार से दो लड़कियाँ आती दिखीं। बिना देरी के उन्होंने लिफ्ट ऑफर कर दी। लड़कियाँ तैयार हो गईं, लेकिन सीट चुनना बंटवारा बन गया:
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जितेंद्र ने खूबसूरत दिखने वाली लड़की को पीछे वाली सीट पर बैठाया।
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प्रेम चोपड़ा को फ्रंट सीट मिली।
प्रेम चोपड़ा भले ही नाराज़ हुए, मगर दोस्ती के नाम पर चुप रहे — और तमिल में मज़ेदार गुस्सा निकालने लगे, जिसे लड़कियों ने अनजाने में दोस्ताना समझ लिया।
“चलो फिल्म देखते हैं” और ये कैसी मन्नत!
बातों-बातों में दोनों ने न्योता बढ़ाया:
“चलिए, ‘नीला आकाश’ (1965) देखते हैं।”
लड़कियाँ भी हां-कर बैठीं। थिएटर में पता चला कि वे मुस्लिम थीं और उनका रोज़ा भी था। प्रेम चोपड़ा ने थपकी दी,
“तो चलो इफ्तार भी साथ में कर लेते हैं।”
इफ़्तार का बड़ा संकट
दूसरा अर्धांतर आगया, और प्रेम-जितेंद्र की नींद उड़ गई। दोनों के पास भीख माँगने जितना पैसा नहीं था — इफ्तार का बिल कौन उठाए?
“भाई, पैसे नहीं हैं। कैसे लेंगे?”
“चलो, चुपके से निकल लेते हैं!”
और ज़ब थिएटर का पर्दा दूसरी हाफ़ के लिए उठा, तो प्रेम-चोपड़ा और जतेंद्र वहाँ नहीं थे — दोनों निकल चुके थे, इफ्तार से बच निकले एक अनोखे ठहाके के साथ।
आज जब हम जतेंद्र के 83वें जन्मदिन की बधाई देते हैं, तो यह पुराना किस्सा याद आता है — दो दोस्त, एक कार, दो जिंदादिल लड़कियाँ और इफ्तार से बचने की मासूम मस्ती।