“मिट्टी की चिताएँ और घोड़े का प्रेम” – पृथ्वीराज कपूर की अनकही दास्ताँ
आज 29 मई 1972 को मनाया जाता है महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) की पुण्यतिथि। थिएटर और सिनेमा के अभूतपूर्व पथप्रदर्शक, जिन्होंने 1944 से 1960 तक पूरे देश में नाटकों के जरिये आनंद बांटा। आज उनके साथ जुड़ा एक बेहद रोचक किस्सा आपसे साझा करता हूँ, जहाँ राजनीति ने उनके स्वागत के अनुमान पर पानी फेरने की कोशिश की – लेकिन उन्होंने अपने चर्चित अंदाज़ में चुटकी में सभी विरोधियों को चुप कर दिया!
काले झंडों की धमकी और “चलो स्वागत तो करते हैं” की शान
1944 से 1960 तक, पृथ्वीराज कपूर अपने थिएटर तिरंगा (Prithvi Theatres) के साथ झाबुआ से लेकर कन्याकुमारी तक, कश्मीर से पूर्वोत्तर तक यात्रा कर नाटकीय प्रस्तुतियाँ देते रहे। उस दौर में, जब भारत विभाजन की आग अभी ठंडी भी नहीं थी, हर छोटी-बड़ी जनसभा सामाजिक-राजनीतिक बहस का मंच बन जाती थी। उसी सिलसिले में जब कपूर साहब त्रिची (Tiruchirappalli) और मदुरै (Madurai) पहुंचे, उन्हें मिली थी एक धमकी— “अगर तुम यहाँ आओगे, तो हम काले झंडे लहरा कर तुम्हारा विरोध करेंगे। हिंदी संस्कृति थोपने के बहाने तुम यहाँ आए हो, हम तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे।”
लेकिन उन दिनों के इस महान कलाकार ने बड़े ही शालीन ढंग से जवाब दिया:
पृथ्वीराज कपूर:
“तो चलिए, स्वागत ही तो करेंगे। अब आपकी मर्ज़ी, आप जिस रंग का झंडा उठा लें।”
उन लफ़्ज़ों में झलकती थी उनकी आत्मविश्वास से भरी बड़ी हरियाली – विरोध हो या स्वागत, मंच उनका अपना था।
“चेतक” की धरती पर घोड़े की मौत और प्रेम की भाषा
साल 1960 में निर्देशक किदार शर्मा (Kidar Sharma) ने बनाई थी फिल्म “चेतक” (Chetak), जो महाराणा प्रताप के अदम्य साहस के प्रतीक घोड़े चेतक की कथा को परदे पर जीवंत करती है। पृथ्वीराज कपूर को महाराणा प्रताप का रोल निभाने के लिए चुना गया। जब मृत्युशैया पर चेतक के आख़िरी दृश्य की शूटिंग होनी थी, उन्होंने किदार शर्मा से पूछा:
पृथ्वीराज कपूर (शंकित स्वर):
“इस दृश्य में चेतक की मौत पर मेरे क्या बोलने होंगे?”
किदार शर्मा ने कहा:
किदार शर्मा:
“घोड़े तो किसी भाषा को नहीं समझते – न हिंदी, न उर्दू, न अंग्रेज़ी। घोड़ा ‘प्यार की भाषा’ समझता है। जब चेतक मर रहा है, तुम अपना गाल उसके गाल से लगा दो – यही तुम्हारे संवाद होंगे।”
यह सुनकर पृथ्वीराज कपूर का रिएक्शन था अनूठा:
पृथ्वीराज कपूर:
“मुझे एक ज्योतिषी ने कहा था कि मेरी मौत घोड़े के काटने से ही होगी। इसलिए मैं तो घोड़े का चेहरा पास नहीं लाऊँगा!”
किदार शर्मा ने बड़े साहसी अंदाज़ में कहा:
किदार शर्मा:
“अगर तुम्हारी मौत सच में चेतक के काटने से हुई, तो मैं भी तुम्हारी चिता पर जल मर जाऊँगा—साथ ही ‘सती’ हो जाऊँगा।”
यह शानदान वादा पृथ्वीराज कपूर को इतना प्रभावित कर गया कि उन्होंने वही सीन बिना बदलाव के शूट कर दिया।
“सती” का वादा और अंतिम मुलाकात का मार्मिक मोड़
साल 1972 आते-आते पृथ्वीराज कपूर गले के कैंसर के चंगुल में फँस गए। अस्पताल के बिस्तर पर वह अंतिम साँसें गिन रहे थे। द. किदार शर्मा उन्हें अंतिम विदा देने अस्पताल पहुँचे। डॉक्टर ने चेतावनी दी कि वे अब दृढ़ता से बोल पाने में असमर्थ हैं, उन्हें सुनने के लिए कान घुटने के पास रखना होगा।
किदार शर्मा जी जैसे ही कमरे में पहुँचे, उन्होंने ज़ोर से कहा:
किदार शर्मा:
“क्या हाल है, भाई साहब?”
पृथ्वीराज कपूर ने मुश्किल से आवाज़ निकाली:
पृथ्वीराज कपूर:
“जानवर भाषाएँ नहीं समझते। आप अपना गाल उसके गाल पर रख दीजिये।”
किदार शर्मा बदलते अर्थ समझ गए — ये यादगार लफ़्ज़ चेतक की मौत वाले दृश्य के “प्यार की भाषा” का इशारा थे। उन्होंने अपना कान पृथ्वीराज जी के होंठों के पास लगाया, लेकिन तभी डॉक्टर आकर बोले कि उनकी हालत और बिगड़ रही है, कृपया बाहर चले जाएँ।
आँसुओं से भरी आँखों के साथ किदार शर्मा अस्पताल के कमरे से बाहर निकले और लगभग दस कदम ही चले थे कि शम्मी कपूर (Shammi Kapoor) दौड़ते हुए आए और रोते हुए कहा:
शम्मी कपूर:
“पापा जी चल बसे किदार अंकल… आपने उन्हें आख़िरी पल में खुश कर दिया।”
और यहीं रुक गई वह गाथा, जिसमें “घोड़े की मौत” और “प्रेम की भाषा” का वादा, दोनों ही सच हुए—but प्यार और आदर से निभाया गया।
संकलन के बाद: यादों की अमर गाथा
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थिएटर से सिनेमा तक
पृथ्वीराज कपूर ने वे दिन देखे जब थिएटर की चटख हँसी और चायनी के बदले मघजाल में रंगमंच का जादू फैलता था। -
“चेतक” का अमर दृश्य
चेतक की मृत्यु के उस मर्मस्पर्शी दृश्य ने दिखाया कि सच्चा अभिनय वही है जहाँ अभिनेता और रचनाकार मिलकर “प्यार की भाषा” बोलें। -
राजनीति और रंगमंच का टकराव
काले झंडों के बावजूद, पृथ्वीराज कपूर ने मंच को अपना बनाया—बिना किसी डर के। -
प्रतिज्ञा का पालन
किदार शर्मा का “सती” वादा और उस दृश्य का गहन प्रभाव — दिखाता है कि पुरस्कार पाने से बड़ा सुख होता है “वादा निभाना”। -
युगों का पुल
29 मई 1972 को उनकी विदाई ने एक युग का अंत किया, परंतु उनकी कहानियाँ, किरदार और “चेतक” जैसी यादें हमें सिखाती हैं कि भाषा या शब्द कम पड़ सकते हैं, लेकिन भावना कभी नहीं।