शशि कपूर: एक यादगार सफ़र बचपन से परदे का जादू तक
मार्च की एक ताज़ा सुबह, 18 मार्च 1938 को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता), ब्रिटिश इंडिया में बालबीर राज कपूर के रूप में जन्मे शशि कपूर ने कभी सोचा नहीं होगा कि वे जिस दुनिया में कदम रख रहे हैं, वह भविष्य में बॉलीवुड के इतिहास का अहम हिस्सा बन जाएगी। प्रसिद्ध कपूर परिवार की तीसरे और सबसे छोटे बेटे शशि ने अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ “प्रिथ्वी थिएटर्स” की मशहूर मंडली में प्लेबैक शुरुआती कदम रखे। उनके बड़े भाई राज कपूर और शम्मी कपूर पहले से उस रौशन घराने के चमकते सितारे थे।
बचपन और फ़ेम का एहसास
बचपन में शशि कपूर के घर फिल्म इंडस्ट्री की हलचल बहुत दूर थी। हालांकि उन्हें पता था कि उनके पिता एक्टर हैं, लेकिन मुंबई के किसी सार्वजनिक स्थान पर उनके साथ जाना लगभग नामुमकिन हो जाता था। कुणाल कपूर, जो स्वयं कई सालों तक कलाकार रहे, बताते हैं:
“डैड ने कभी संडे को काम नहीं किया। संडे को सारा दिन वो फ़ैमिली के साथ रहते थे। हम सब साथ में खाना खाते थे। संडे के दिन अपने किसी दोस्त को वो घर नहीं बुलाते थे। लेट 1970s और अर्ली 1980s में वो बहुत काम कर रहे थे। वो छह शिफ़्टों में काम करते थे। तब हम लोग साथ में ब्रेकफ़ास्ट करते थे। सुबह साढ़े सात बजे हमारे ब्रेकफ़ास्ट का टाइम होता था। वो चाहे रात को किसी भी समय आएं, सुबह साढ़े सात बजे तक ब्रेकफ़ास्ट टेबल पर आ जाते थे। हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा थे हमारे पिता। वो फ्रैंडली थे। स्ट्रिक्ट नहीं थे।”
कुणाल आगे याद करते हैं कि कैसे उनके पिता शूटिंग के दौरान भी उनके साथ रहने का पूरा ध्यान रखते थे, ताकि बच्चों का बचपन भी भरपूर यादगार रहे।
परिवार और प्रारंभिक जीवन
शशि कपूर का जन्म बालबीर राज कपूर के रूप में हुआ, लेकिन जल्द ही उन्होंने “शशिराज” और फिर “शशि कपूर” नाम अपनाया। उनके माता-पिता में उनकी माँ जेनिफ़र कैंडल एक अंग्रेज़ी थिएटर कलाकार थीं और उनके पिता पृथ्वीराज कपूर भारतीय रंगमंडल के सितारे। इस मिलन से कलेवर में कुछ अलगाव था, फिर भी दोनों की जोड़ी पूरी दुनिया को उन्होंने दिखा दी।
“मेरा जन्म 26 जून 1959 को हुआ था। मेरे पैदा होने के बाद डैड फ़िल्मों में आए थे। उससे पहले वो स्टेज नाटकों में काम करते थे। मेरे पैदा होने के बाद उन्होंने चार दीवारी और धर्मपुत्र में काम किया। एज़ ए हीरो धर्मपुत्र उनकी पहली फ़िल्म थी। फिर उन्होंने वक्त में काम किया। जब धर्मपुत्र में उन्हें साइन किया गया था तब कोई भी हीरोइन उनके साथ काम करने को तैयार नहीं हो रही थी। मगर फिर नंदा जी ने उनकी हीरोइन बनना स्वीकार किया। जबकी वो खुद भी उस वक्त की स्टार एक्ट्रेस थी।” – कुणाल कपूर
उनके दादा-पिता (ज्योथ फ़्री कैंडल और पृथ्वीराज कपूर) दोनों ही थिएटर जगत के दिग्गज थे, इसलिए शशि का रंगमंच से संबंध बचपन से गहरा था।
करियर की शुरुआत और ज़बरदस्त छलांग
शशि कपूर ने 1948 में चार वर्ष की आयु में ही “आग” फिल्म में एक बाल कलाकार के रूप में डेब्यू किया। 1961 में यश चोपड़ा की राजनीतिक ड्रामा “धर्मपुत्र” से उन्होंने पूर्ण रूप से वयस्क अभिनेता के रूप में मंच संभाला। 1965 में “वक़्त” और “जब जब फूल खिले” जैसी दो ब्लॉकबस्टर फ़िल्मों ने उन्हें सितारा बना दिया। अगले दशक में “देवदार”, “चोर मचाए शोर”, “दोबी”, “कभी कभी” जैसे क्लासिक्स में उनके अभिनय के जलवे दिखाई दिए।
शशि ने हिंदी के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा में भी अपनी पहचान बनाई। मर्चेंट आइवरी की “द हाउसहोल्डर” (1963) और “हीट एंड डस्ट” (1983) जैसी फ़िल्मों में उनके अभिनय का संसारभर में तहलका रहा।
पारिवारिक जीवन और प्यार की कहानी
शशि कपूर ने जुलाई 1958 में जेनिफ़र कैंडल से शादी की। दोनों की प्रेम कहानी को गुरूजी कहे जाने वाले श्याम बेनेगल ने भी स्वीकारा। कुणाल कहते हैं:
“लोग कहते हैं कि मेरे नाना मेरे मॉम-डैड की शादी से खुश नहीं थे। ये गलत बात है। उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी डैड और मॉम की शादी से। उन्हें बस इस बात की फ़िक्र थी कि उनकी हीरोइन चली जाएगी। मेरी मां ही मेरे नाना ज्यॉफ़्री कैंडल की थिएटर कंपनी शेक्सपियराना के सभी नाटकों की हीरोइन हुआ करती थी। मेरे नाना-नानी बहुत अमेज़िंग थे। उनके जैसे लोग मुश्किल से मिलते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मेरे नाना ब्रिटिश आर्मी के साथ भारत आए थे। उन्हें भारत बहुत पसंद आया। इसलिए 1950 में वो फिर से भारत लौट आए।”
जीवन में सुख और दुख दोनों से दो-चार होते हुए भी शशि-जेनिफ़र की जोड़ी मशहूर थी। फ्रेंडली स्वभाव वाले शशि ने अपने बच्चों—कुणाल, कश्मीरा और संजना के साथ बेहद घनिष्ठ रिश्ता रखा। कुणाल बताते हैं:
“बहुत कम पिता होते हैं हमारी संस्कृति में जो अपने बच्चों के साथ इतना क्लॉज़ रिश्ता रखते हैं। किस्मत से हमारा रिश्ता उनके साथ बहुत ग्रेट था। मैं भी अपने बच्चों के साथ ऐसा ही रिश्ता रखता हूं। अपने बेटे की बॉटम तक मैंने अपने हाथों से धोई है। उसकी नैप्पीज़ बदली हैं। डैड के साथ मेरा रिश्ता ऐसा ही था। हालांकि उनका अपने डैड के साथ ऐसा रिश्ता नहीं था।”
प्रिथ्वी थिएटर: कला का मंदिर
1978 में शशि कपूर और जेनिफ़र कैंडल ने एक मचान ईंट से ऊँचा उठाया: मुंबई के जुहू इलाके में “प्रिथ्वी थिएटर”। यह थिएटर केवल एक मंच नहीं, बल्कि भारतीय रंगमंच के प्रति उनके लगन और जुनून का प्रतीक था। उन्होंने अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के सपने को साकार करते हुए इस थिएटर को बनाया और उसका संचालन जेनिफ़र की मृत्यु तक मिला-जुला प्रयासों से चलता रहा। शशि स्वयं थिएटर के मैनेजिंग ट्रस्टी थे जबकि कुणाल कपूर ने दैनिक व्यवस्थाओं में साथ दिया।
प्रिथ्वी थिएटर अपने ओपन-डोर पॉलिसी के लिए मशहूर हुआ, जहाँ दिनभर विभिन्न वर्कशॉप, नाटक और कार्यशालाएँ आयोजित की जाती रहीं। यहाँ रंगमंच के जवाँ कलाकारों को आगे बढ़ाने में बहुत योगदान मिला।
ऊँचे-नीचे: उत्थान और संघर्ष
शशि कपूर ने 1950-60 के दशक में कई सफल फिल्में दीं, लेकिन 1970 के दशक के अंत आते-आते बॉलीवुड में बड़ा बदलाव आया। जब उन्होंने देखा कि अब अच्छी फिल्में नहीं बन रही हैं और इंडस्ट्री बड़े-धन्ना सेठों के दबाव में छूटने लगी है, तो उन्होंने अपनी फ़िल्म कंपनी “फ़िल्म वालास” की स्थापना की। इसी मंच से “जुनून”, “कल्लयुग”, “36 चौरंगी लेन”, “विजेता”, “उत्सव” और “अज़ूबा” जैसी गुणवत्तापूर्ण फ़िल्मों का निर्माण हुआ।
हालाँकि उनके पास 1960 के आखिर की ऊर्जा और जुनून था, पर 1970 के अंत में एक दौर ऐसा आया जब उनके पास काम नहीं था और वह घर पर ही रहते रहे। उसी संघर्ष के बीच उन्होंने गोवा में शांति खोजी, लेकिन आर्थिक तंगी में उन्हें अपना स्पोर्ट्स कार और जेनिफ़र ने अपनी निजी चीज़ें बेच डालीं। मगर 1981 में “शर्मीली” फ़िल्म के सफल होने से सब ठीक हुआ, और परिवार की वित्तीय मुश्किलें दूर हो गईं।
पुरस्कार और सम्मान
शशि कपूर ने अपने पांच दशक से भी ज्यादा लंबे करियर में अभिनय, निर्माण और निर्देशन में अद्भुत योगदान दिया। वे तीन बार नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स और दो बार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड से सम्मानित हुए।
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1976 में “देवदार” के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर (फ़िल्मफ़ेयर)
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1986 में “न्यू दिल्ली टाइम्स” के लिए बेस्ट एक्टर (नेशनल फिल्म अवॉर्ड)
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2011 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण
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2015 में उन्हें सर्वोच्च फिल्म सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया
आख़िरी दिन और अमिट विरासत
4 दिसंबर 2017 को मुंबई में 79 वर्ष की आयु में शशि कपूर ने अंतिम सांस ली। उनका देहांत न केवल कपूर परिवार के लिए, बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा जगत के लिए एक युगांतकारी क्षण था। फिल्म और थिएटर जगत में उनके योगदान की मिसाल दी जाती रहेगी।
कुणाल कपूर के शब्दों में:
“आखिरी दिनों में डैड की तबियत बहुत खराब रहती थी। सप्ताह में 3 दफ़ा उन्हें डायलिसिस करानी पड़ती थी। उसी दौरान उन्हें दादासाहेब फ़ाल्के पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी। मगर तबियत खराब होने की वजह से वो दिल्ली भी नहीं जा सके थे। डैड ने कई शानदार फ़िल्मों में काम किया। कुछ अच्छी फ़िल्में बनाई। उन्हें दादासाहेब फ़ाल्के अवॉर्ड जल्दी देना चाहिए था। अगर ऐसे अवॉर्ड सही एज में दिए जाएं तो कलाकर को अच्छा लगता है। जब कोई इंसान अपने जीवन के आखिरी सालों में हो और उसे तब कोई अवॉर्ड दिया जाए तो उसके लिए वो अवॉर्ड कोई मायने नहीं रखता। वैसे, डैड ने भी कभी अवॉर्ड्स की परवाह नहीं की थी।”
उनकी याद में कोई लेख लिखे, कोई समारोह हो, उनकी कला की चमक से हर दिल रोशन हो जाता है। शशि कपूर का नाम सिनेमा इतिहास में सदियों तक चमकता रहेगा।