Mukesh

 

मुकेश का जादुई सफर: शादी से सुपरस्टार तक

उस ज़माने में जहाँ शादी-ब्याह में कोई डीजे नहीं हुआ करते थे, वहीं मुंबई (तब बॉम्बे) से आए दो फ़िल्मी शख्सियतों ने एक युवा मुकेश चंद माथुर की आवाज़ पर मोहर लगाई। मुकेश की बहन की शादी की रौनक बढ़ाने के लिए उनसे कहा गया: “तुम बहुत गाते हो ना—आज कुछ गाना गाओ।” उस दिन जब उन्होंने पादरी के हाथों शादी की रस्में निभाते-पढ़ते-गाते हुए के.एल. सहगल का एक गीत गाया, किसी ने सोचा भी नहीं था कि ये वही सुरों का जादूगर बनेंगे, जिसे बाद में ‘दिल जलता है तो जलने दो’ जैसे गीतों ने सुर्ख़ियों में चमका दिया।  


शादी की महफ़िल और फ़िल्मी दुनिया का पहला इशारा

मुकेश के पिता ज़ोरावर चंद माथुर एक सीधे-सादे इंसान थे, जिन्हें फ़िल्म-गाने के मायने नहीं मालूम थे। शादी के अगले दिन बॉम्बे से आए वो दो शख़्स उनके पास बैठे और बोले:

“आपका बेटा तो बहुत अच्छा गाता है। इसे फ़िल्मों में भेज दीजिए—सहगल से भी ज़्यादा नाम कमाएगा।”  

यह सुनकर मुकेश के पिता हैरान रह गए। उन्होंने पूछा, “ये लोग कौन हैं?” तो मुकेश ने जवाब दिया कि ये फ़िल्मी दुनिया के मशहूर लोग हैं; उनमें से एक थे उस दौर के सुपरस्टार अभिनेता मोतीलाल, जो मुकेश के दूर के रिशतेदार भी थे। लेकिन कारण अज्ञानता का था—फ़िल्मी दुनिया उनके बस की बात नहीं थी। कम पढ़े-लिखे माहौल में पिता ने कहा, “हमें इसे क्लर्क-नौकर जैसी नौकरी दिलवा दो, ये फ़िल्म-विल्म हमारी समझ से बाहर है।” उलटा, जब मोतीलाल जी ने ज़ोर-ज़ोर से विनती की, तब उन्होंने समझा कि शायद सचमुच मुकेश में कोई काबिलियत है। आखिरकार, पिता ने मुकेश को बॉम्बे आने की इजाज़त दे दी।   


बॉम्बे की पहली उड़ान: ‘निरदोष’ and संघर्ष

मुकेश जब बॉम्बे पहुंचे, तो मोतीलाल जी ने उन्हें निर्दोष (1941) नाम की फ़िल्म में एक अभिनेता-सिंगर के रूप में काम दिलाया। हीरोइन थीं नलिनी जयवंत। मुकेश का पहला गीत था “दिल ही बुझा हुआ हो तो” (गीतकार नीलकंठ तिवारी), लेकिन फ़िल्म बॉक्स-ऑफ़िस पर फ्लॉप रही। नेशनल स्टूडियोज़ पर ताला लग गया, और मुकेश को मुंबई की गली-मुहल्लों में रोज़ी रोटी के लिए कई तरह के काम करने पड़े—कभी शेयर-ब्रोकर बने, कभी ड्राई फ्रूट्स बेचे। इस बीच उन्होंने कुछ और फ़िल्मों में अभिनय और गायकी की, पर तमाम कोशिशों के बावजूद सफलता नहीं मिली।  

 

(चित्र संदर्भ: मुकेश स्टूडियो में कलाकारों के साथ, 1950 के दशक – )


फ़िल्मी दुनिया में बड़ी क्रांति: प्लेबैक गायकी का आगाज़

उस दौर तक भारत में प्लेबैक सिंगिंग का चलन नहीं था। जो भी एक्टर स्क्रीन पर गाते दिखते थे, असल में वही अपना गीत रिकॉर्ड करते थे। मगर 1943 में कोलकाता में पहली बार पेशेवर प्लेबैक सिस्टम शुरू हुआ, और उसके बाद बॉम्बे में भी धीरे-धीरे यह क्रांति फैली। मोतीलाल जी की मदद से मुकेश को ‘पहली नज़र’ (1945) फ़िल्म में मोटीलाल के लिए पहला प्लेबैक गीत “दिल जलता है तो जलने दो” रिकॉर्ड करने का अवसर मिला। यदि यकीन न हो, तो याद कीजिए कि के.एल. सहगल ने जब ये गीत सुना, तो कहा था, “ये अजीब है, मुझे ऐसा कोई गीत गाया याद नहीं।”  

फ़िल्म के निर्माता एक वक्त पर उस गीत को हटाना चाहते थे, लेकिन किसी तरह उसे स्क्रीन पर जगह मिल गई—और जब दर्शकों तक पहुँचा, तो मुकेश के सुरों के दीवाने हो गए। लोग कहने लगे, “इंडस्ट्री में दूसरा के.एल. सहगल आ गया है!” यहीं से मुकेश का असली सफर शुरू हुआ, जहाँ बतौर अभिनेता-सिंगर वह असफल हुए थे, लेकिन अब बतौर प्लेबैक सिंगर उन्होंने सफलता के झंडे गाड़ दिए।  


सुरों का समंदर: मुकेश का संगीत सफर

“मैंने तो शुरुआत ही हीरो के तौर पर की थी, लेकिन मैं फेल हो गया। फिर मैंने सोचा कि एक सेकंड क्लास एक्टर बनने से अच्छा है कि मैं एक फर्स्ट क्लास सिंगर बन जाऊँ।”  

मुकेश जन्मे थे 20 जुलाई 1923 को दिल्ली में, ज़ोरावर चंद माथुर (पिता) और चंद्राणी माथुर (माता) के यहाँ। वह दस भाई-बहनों में छठे नंबर पर थे। बचपन से ही घर पर संगीत की झलक दिखती थी, क्योंकि उनकी बहन को संगीत सिखाने के लिए संगीत शिक्षक आते थे—उसी को देखकर मुकेश का भी सुरों में मन बहलने लगा।  

अपने पहले ही प्रोडक्शन ‘पहली नज़र’ के बाद उन्होंने अनिल बिस्वास, नौशाद अली जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम किया। नौशाद ने उन्हें के.एल. सहगल के अंदाज़ से बाहर निकालकर खुद की पहचान बनाने में मदद दी। ‘मेरी आँखें तेरी ओर’, ‘आँखों में मस्ती के’, ‘मेरा जूता है जापानी’ जैसी दीवानी धुनों ने लोगों के दिलों में उतरना शुरु कर दिया।  

(चित्र संदर्भ: रिकॉर्डिंग स्टूडियो में राजकपूर के साथ मुकेश, 1950 के दशक – )


दिल की आवाज़: राज कपूर का मुखर स्वर

मुकेश को असली पहचान मिली राज कपूर की फ़िल्मों में गा कर। ‘आवारा’ (1951), ‘श्री 420’ (1955), ‘संगम’ (1964) आदि फिल्मों में राज कपूर के अभिनय को मुकेश की आवाज़ ने और भी जीवंत बना दिया। कई बार उनकी आवाज़ इतनी राज़दार हो उठी कि यह कहा जाने लगा, “मुकेश की आवाज़ वो है, जो आम आदमी की दर्दभरी दास्ताँ बयाँ कर देती है।”  

‘साब कुछ सीखा हमने’ (अणारी, 1959) के लिए उन्हें पहला फ़िल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। शैलेन्द्र की लिखी ज़ुबाँ ने उनके सुरों को अमर कर दिया।  


शादी, परिवार और अन्य यादें

मुकेश ने सरल त्रिवेदी (बचिबेन) से शादी की। उनकी शादी भी उतनी ही रंगीन थी जितनी उनकी गायकी—इतनी कि उस पर एक छोटी फ़िल्म बनाई जा सकती है! एक दिन ज़रूर उनके प्रेम कहानी का किस्सा पढ़िएगा, वादा करते हैं कि वैसा नाटकीय किस्सा आपने कहीं नहीं सुना होगा।  

उनकी ज़िंदगी में एक अजीबोगरीब मोड़ आया जब उन्होंने सोचा था कि फ़िल्मी दुनिया छोड़कर रिटायरमेंट ले लें, लेकिन ‘दिल जलता है…’ ने उनकी दिशा बदल दी। बेटी, बेटे और परिवार के बीच उन्होंने आवाज़ की उस दुनिया में अपना मुकाम बनाया, जहाँ उनके बिना क्लासिक हिन्दी सिनेमा अधूरा था।


विरासत और आज का दिन

आज मुकेश चंद माथुर का जन्मदिवस है (20 जुलाई 1923)। लगभग चार दशकों तक गायकी के महासमर में उनके सुरों ने हमें “आँखों आप की याद आई” से लेकर “कभी कभी मेरे दिल में” तक, हर एहसास से रूबरू कराया। उनकी आवाज़ अब भी हमें उस दौर का एहसास कराती है, जब गाने सिनेमा की जान हुआ करते थे।  

(चित्र संदर्भ: मंच पर प्रस्तुति देते मुकेश, 1960 का दशक – )